(जितेंद्र पाठक, ग्वालियर)
ग्वालियर18जुलाई2022। ग्वालियर नगर निगम से बीजेपी के महापौर का तिलिस्म आखिरकार टूट ही गया, साथ ही भाजपा से पहली बार चुनाव लडने वाली सुमन शर्मा का महापौर बनने का सपना भी बिखर गया। सुमन का ये सपना तोडने में केडरबेस वाले कमल दल के कई जिम्मेदार शामिल है जो जीत होने पर श्रेय लेने की तैयारी में तो जुटे थे लेकिन हार का ‘’हार’’ पहनने के लिए कोई तैयार नही है। हार के कारणों पर सफाई केवल सुमन शर्मा ही दे रही है जिसमें वोटर पर्ची न बंट पाना, बूथ बदल जाना जैसे प्रशासनिक कारण है लेकिन ये कारण तो कांग्रेस और अन्य दलों के प्रत्याशी के साथ भी रहे है।
वैसे भी सुमन शर्मा तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री तोमर, सिंधिया, केबिनेट मंत्री नरोत्तम मिश्रा, प्रधुम्न सिंह, पूर्व सांसद जयभान सिंह पवैया, पूर्व संगठन मंत्री विजय दुबे, आशुतोष तिवारी, राज्यसभा सांसद सुमित्रा वाल्मिकी जैसे नामों के साथ पूरी भाजपा सरकार और संगठन के साथ चुनाव लड रही थी फिर उऩके लिए नतीजा अप्रत्याशित क्यों आया। इसकी समीक्षा हांलाकि पार्टी स्तर पर तो होगी ही, लेकिन कुछ कारण फौरी तौर पर सामने हैं जो सभी को नजर आ रहे थे लेकिन पता नही क्यों बीजेपी के चुनावी जादूगर समझ नही पाए। इस संबंध में इंडिया टुडे एमपी ने चुनाव परिणाम के ठीक 10 दिन पहले एक खबर भी साझा की थी https://indiatodaymp.com/?p=11212 जिसे इस लिंक पर क्लिक करके भी पढा जा सकता है।
दरअसल ग्वालियर महापौर पद के लिए हुए चुनाव में बीजेपी की तरफ से सुमन शर्मा की चूक और उनके चुनाव के संचालन की जिम्मेदारी संभाल रहे पार्टी नेताओं का मुगालता ही सुमन को ले डूबा। एक बडी गलती सुमन और चुनाव संचालन करने वालों की ये भी रही कि विपक्षी कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी डॉ शोभा सतीश सिकरवार के दमखम को नही भांप पाए। वहीं ये आप प्रत्याशी रूचि गुप्ता को भी हल्के में ले गए। दरअसल सतीश सिकरवार अब भले ही कांग्रेस में है लेकिन वो जन्मजात भाजपाई थे सतीश और उनका परिवार लंबे समय तक भाजपा में रहा है लिहाजा भाजपा के चुनाव संचालन की स्थिति, कमजोर कडी, चुनावी मैनेजमेंट, डोमिनेंटिंग फैक्टर, प्रत्याशी का आँकलन, और भाजपा के संगठन के लोगों का काम करने की तरीके का आँकलन सतीश और उनके परिवार ने बिलकुट सटीक ढंग से किया, जिसका फायदा भी उन्हे मिला।
वहीं सूत्र बताते है कि इसके उलट भाजपा प्रत्याशी ने अपना टिकट फायनल होते ही ये मानकर चुनाव प्रचार शुरू किया था कि इस बार भी वो 57 साल से चली आ रही परंपरा के तहत बीजेपी महापौर के तौर पर शपथ लेंगी। लेकिन इस बार ये सोचना काफी महंगा साबित हुआ। इसी सोच के चलते सुमन बीजेपी के चुनावी कार्यक्रमों के कई माहिर नेताओं से संपर्क करने में चूक गई, चुनाव प्रचार में पार्टी ने पुराने नेताओं से मदद मांगने में भी उनका हाथ तंग रहा या ये समझा जाए, कि उन्होने जानबूझकर ऐसा किया, क्योंकि शायद उन्हे ये आभास रहा हो, कि नगर निगम चुनाव में तो वो बीजेपी की ब्रांड वैल्यू पर जीत ही जाएँगी, फिर क्यों सलाह-मश्विरों के ऐहसान का भार अपने सिर पर उठाया जाए।
उधर चर्चा है कि चुनाव संचालनकर्ताओं ने सुमन शर्मा के चुनाव प्रबंधन को कॉर्पोरेट स्टायल में हैंडल किया, जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं, समर्थकों और अनुभवी लोगों को किनारे कर अपनी हां में हां वालों को पास में बिठाकर चुनावी रजिस्टर पर रफ काम किया। होटलों के एसी कमरों में कमल दल के जिम्मेदार चुनावी रणनीति बनाने में लगे रहे, लेकिन जमीन पर काम क्या हो रहा है, कहां परेशानी आ रही है, असंतुष्ट क्या भूमिका निभा रहे है, बडे नेताओं की गुटबाजी का असर किस स्तर पर है, विपक्षी पार्टी के अँदरखाने से फीडबैक क्या है, मंडल अध्यक्षों की क्या स्थिति है क्या वास्तव में भाजपा के लिए काम हो रहा है, मीडिया के पास क्या खबरें है, क्या सुधारने की जरूरत है इसकी सुध नही ली गई, या कहें मुंह फेर लिया गया। क्योंकि ये बात विपक्षी दल भी जानते है कि बीजेपी का चुनावी मैनेजमेंट बूथ लेवल तक मजबूत रहता है तो फिर उस चुनावी मैनेजमेंट का महापौर प्रत्याशी के चुनाव में क्या हुआ। सवाल ये भी उठता है कि अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी की महापौर प्रत्याशी चुनाव हार जाती है लेकिन पार्षदों के संख्याबल के हिसाब से परिषद बीजेपी की ही फिर कैसे बनी, तो जबाब ये है कि पार्षदों ने चुनाव अपने दमखम और अपने व्यवहार पर लडा, उनके लिए पार्टी का कोई अलग मैनेजमेंट नही था हर पार्षद की अपनी व्यवस्था थी लेकिन महापौर प्रत्याशी का चुनाव जिन संचालनकर्ताओं के जिम्मे था वो फेल कहे जाएंगे।
ग्वालियर नगर निगम के महापौर पद में 57 साल बाद पूर्व भाजपाई और अब कांग्रेसी दंपत्ति के सेंध लगाने से एक बात तो साफ हो गई है कि बीजेपी में कडक कॉलर वाले कुर्ते पैजामे पहनकर सत्ता और संगठन के जिम्मेदार लोगों को इस हार पर मातम मनाना चाहिए और न केवल मातम मनाना चाहिए बल्कि अपने आपको, अगर वो इस चुनाव में शामिल रहे है तो सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार मानकर नैतिक साहस दिखाना चाहिए, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचाकर सोशल मीडिया पर लोक लुभावन स्लोगन के साथ डालने वाले इतना कर पाएँगें, इसकी उम्मीद कम ही है
उधर आने वाले दिनों में अपनी हार के कारणों का अकेले में मंथन करने के बाद सुमन शर्मा का भी मुखर होना तय है कि अभी पार्टी के सम्मान और लिहाज में वोटर पर्ची न बंटने, बूथ बदलने जैसे कारण गिना रही है लेकिन जब उन्हे दल के विभीषणों के बारे में पता चलेगा, और पता चलेगा कि उनकी हार के हीरो कौन कौन है तो सुमन चुप रहने वालों में से तो नही है और उन्हे इस बात को सार्वजनिक करना भी चाहिए, ताकि आगामी चुनावों में ऐसे फर्जी चुनावी रणबाकुंरों को सबक मिल सके।